Friday, April 29, 2011

परती

परती युगों युगों से 
             जो परती रही है ,
जरूरतों की
            कुदालों से बिंधकर 
मजबूरियों के
           झरनों से सिंचकर
हलों के 
             फालों में फंसकर
परती नहीं रही 
             अनुर्वर नहीं रही 


गैर्जरूरती बेकारी भरी 
                      मात्र परती नहीं रही 
उर्वर हो चली है आज 
                     उस पर गिद्धों की नजर है 
शोपिंग माल बन रहे है वहां

 धन कुबेरों के घरौंदे  
                 बढ़ रहें है वहां 
वह अब अवकाश के लम्हे 
                बिताने , सुस्ताने ,पसीने सुखाने 
की धरती नहीं रही 


जो अब तक परती थी धरती 
                  अपनी अब वह परती भी नहीं रही .

लगती है

 चितवन तुम्हारी 
              राज भरी  लगती है 
नैनों के कोणो की चपलता 
              काज भरी लगती है .
मूक संकेत के बेंत 
               मर्मस्थल पर लगते है 
मुखर होकर भी संकेत 
                संकेत से ही लगते है 
अनबन तुम्हारी 
                  साज भरी  लगती है 
थिरकन तुम्हारी 
                आवाज  भरी  लगती है 
साड़ी सरलता तुम्हारी 
                दिखावा है , ढोंग है 
छलावा है ,भ्रम  है  


 इसके पीछे की दुविधा 
                 गाज भरी  लगती है 
चितवन तुम्हारी 
                 राज भरी लगती है .......