Tuesday, September 13, 2011

अग्रसोची सदा प्रसन्न रहता 
उसे कोई पछतावा होता  नहीं 
भ्रमजाल में जो कभी रहता नहीं 
धोखे खाकर कभी रोता नहीं 

सहना नहीं पड़ता उसे 
रियायत जो कभी करता नहीं 
सही -सही फैसला जो लेता है 
संताप उत्ताप कभी सहता नहीं 

पछतावा भूल की दवा है 
हवा किसको लगती नहीं 
चतुर सुजान तो वही है 
दुहराता भूल को कतई नहीं

जो होगया सो हो गया 
उससे चिपटना कैसा 
जिस पंक से छूट गए 
फिर उससे लिपटना कैसा 

ध्यान कभी भंग न हो 
ऐसा क्या हो सकता है 
कभी चैन ही न मिले 
कैसे वह सो सकता है ..............................


Friday, April 29, 2011

परती

परती युगों युगों से 
             जो परती रही है ,
जरूरतों की
            कुदालों से बिंधकर 
मजबूरियों के
           झरनों से सिंचकर
हलों के 
             फालों में फंसकर
परती नहीं रही 
             अनुर्वर नहीं रही 


गैर्जरूरती बेकारी भरी 
                      मात्र परती नहीं रही 
उर्वर हो चली है आज 
                     उस पर गिद्धों की नजर है 
शोपिंग माल बन रहे है वहां

 धन कुबेरों के घरौंदे  
                 बढ़ रहें है वहां 
वह अब अवकाश के लम्हे 
                बिताने , सुस्ताने ,पसीने सुखाने 
की धरती नहीं रही 


जो अब तक परती थी धरती 
                  अपनी अब वह परती भी नहीं रही .

लगती है

 चितवन तुम्हारी 
              राज भरी  लगती है 
नैनों के कोणो की चपलता 
              काज भरी लगती है .
मूक संकेत के बेंत 
               मर्मस्थल पर लगते है 
मुखर होकर भी संकेत 
                संकेत से ही लगते है 
अनबन तुम्हारी 
                  साज भरी  लगती है 
थिरकन तुम्हारी 
                आवाज  भरी  लगती है 
साड़ी सरलता तुम्हारी 
                दिखावा है , ढोंग है 
छलावा है ,भ्रम  है  


 इसके पीछे की दुविधा 
                 गाज भरी  लगती है 
चितवन तुम्हारी 
                 राज भरी लगती है .......

Saturday, March 26, 2011

उदबोधन

मन के सर में नहाओ 
कर दो सपूतों सा कुछ 
अग-जग में जिससे 
कायर कपूत न कहाओ .

                        अविराम साधना का जल 
                                 धो देगा संचित मल .
                                 बन निर्मल रस धार 
                                 बरसाओ - सरसाओ .

रहो मस्त हरदम
चैन की वंशी बजाओ 
                         विषय - रस में धरा क्या है 
                         इस मरुस्थल में हरा क्या है 
आवेशित मन को भान नहीं होता 
भटके मन का सम्मान नहीं होता ,
                                जैसे कैसे इसे राह पर लाओ .

यादें

एक वह भी पल था 
दूसरा यह भी पल है 
                 न तब कल था
                 न अब कल है 

तब रात का अँधेरा था 
 अब अँधेरे का घेरा है 
                  कितनी सजीली रातें थी 
                  कैसी लजीली बातें थी 

अब तो बस उनकी यादें हैं 
जब भी फुहार पड़ती है 
                 जब भी अँधेरा घिरता है 
                 बिजली व्योम में चमकती है 
यादें बलात आ ही जाती हैं 
केवल - केवल सताती हैं .

Saturday, March 19, 2011

वे दिन

न जाने कब बीत गए
          रीते-सुभीते वे दिन ,
छोड़ चित्र अनगिन  .
           सुधा भरे  पीन घट से
सिंचित यौवन  पल छिन ,
            अधमुंदी अधखुली
पलकों के पीछे-पीछे
           उठती गिरती अलकें अनुछिन ,
अधर रस टपकाती रही
            नयनों को इधर - उधर
बस यों ही नचाती रही
           प्रियजनों को बार - बार
संकेतों से सताती रही
            प्रतिपल   अनुदिन ... 



अनायास ही शलभ सब 
            जल गए उसी आग में ,
मानो किंशुक रचित रंग से 
           रंगती रंगाती फाग में ...




चाह करना तो चलाऊ
          आह करना असभ्यता ,
गाती रही निजी राग में 
          नवयुग की भव्यता ,
सच को सच कहना 
         कहाँ की सभ्यता 
घोर उद्दंडता असहनीय अभद्रता ....

         



Friday, March 18, 2011

त्रिमुहानी तेरे तीर

तेरी छवि 
बनाती कवि
कर देती तल्लीन 
       त्रिमुहानी तेरे तीर 
तेरी कल-कल में
श्रुतिगत होती 
कलरव नित नवीन 
     त्रिमुहानी .........
अस्तांचल को जाता सूरज 
उगता अम्बर पर चाँद 
तुम्हारे जल में दिखता 
सायं आस पास 
मधुरस घोलती सी 
कुछ अस्फुट सा बोलती सी 
मानो बजती बीन 
       त्रिमुहानी ............
मंद्माधुर हवा 
दारुकता की दवा
तुम्हारा स्पर्श पाकर 
हवा  सब दुखों को लेती छीन
       त्रिमुहानी ...........
तुम्हारे तट पर रहते 
सुख-दुःख सहते 
न होता मन कभी 
तनिक भी दीन
  त्रिमुहानी ..........................