Saturday, March 26, 2011

उदबोधन

मन के सर में नहाओ 
कर दो सपूतों सा कुछ 
अग-जग में जिससे 
कायर कपूत न कहाओ .

                        अविराम साधना का जल 
                                 धो देगा संचित मल .
                                 बन निर्मल रस धार 
                                 बरसाओ - सरसाओ .

रहो मस्त हरदम
चैन की वंशी बजाओ 
                         विषय - रस में धरा क्या है 
                         इस मरुस्थल में हरा क्या है 
आवेशित मन को भान नहीं होता 
भटके मन का सम्मान नहीं होता ,
                                जैसे कैसे इसे राह पर लाओ .

यादें

एक वह भी पल था 
दूसरा यह भी पल है 
                 न तब कल था
                 न अब कल है 

तब रात का अँधेरा था 
 अब अँधेरे का घेरा है 
                  कितनी सजीली रातें थी 
                  कैसी लजीली बातें थी 

अब तो बस उनकी यादें हैं 
जब भी फुहार पड़ती है 
                 जब भी अँधेरा घिरता है 
                 बिजली व्योम में चमकती है 
यादें बलात आ ही जाती हैं 
केवल - केवल सताती हैं .

Saturday, March 19, 2011

वे दिन

न जाने कब बीत गए
          रीते-सुभीते वे दिन ,
छोड़ चित्र अनगिन  .
           सुधा भरे  पीन घट से
सिंचित यौवन  पल छिन ,
            अधमुंदी अधखुली
पलकों के पीछे-पीछे
           उठती गिरती अलकें अनुछिन ,
अधर रस टपकाती रही
            नयनों को इधर - उधर
बस यों ही नचाती रही
           प्रियजनों को बार - बार
संकेतों से सताती रही
            प्रतिपल   अनुदिन ... 



अनायास ही शलभ सब 
            जल गए उसी आग में ,
मानो किंशुक रचित रंग से 
           रंगती रंगाती फाग में ...




चाह करना तो चलाऊ
          आह करना असभ्यता ,
गाती रही निजी राग में 
          नवयुग की भव्यता ,
सच को सच कहना 
         कहाँ की सभ्यता 
घोर उद्दंडता असहनीय अभद्रता ....

         



Friday, March 18, 2011

त्रिमुहानी तेरे तीर

तेरी छवि 
बनाती कवि
कर देती तल्लीन 
       त्रिमुहानी तेरे तीर 
तेरी कल-कल में
श्रुतिगत होती 
कलरव नित नवीन 
     त्रिमुहानी .........
अस्तांचल को जाता सूरज 
उगता अम्बर पर चाँद 
तुम्हारे जल में दिखता 
सायं आस पास 
मधुरस घोलती सी 
कुछ अस्फुट सा बोलती सी 
मानो बजती बीन 
       त्रिमुहानी ............
मंद्माधुर हवा 
दारुकता की दवा
तुम्हारा स्पर्श पाकर 
हवा  सब दुखों को लेती छीन
       त्रिमुहानी ...........
तुम्हारे तट पर रहते 
सुख-दुःख सहते 
न होता मन कभी 
तनिक भी दीन
  त्रिमुहानी ..........................

Thursday, March 17, 2011

जन्मा हूँ  उसी तट पर 
खेला पला बढ़ा हूँ ,
उसके ही जल में  
गोते खाकर सीखा हूँ ,
उसके ही कूल पर 
बैठ-बैठ पढ़ा हूँ 
उसी का हूँ 
जैसा भी गढा अनगढ़ा हूँ ,
लहरों की थाप सुहानी 
टेढ़ी का अमृतमय पानी 
घरघर संगम के कारण 
बना घाट तिरमुहानी 
आसपास फूलते पलाश 
झुरमुट में फुदगती 
रूपसी सी गौरैया सयानी ,
अनगिनत दृश्य मन हरते
नयन मूंदने  पर भी 
पटल से नहीं  हटते 
पल - प्रतिपल करते 
अठखेलियाँ चतुर्दिक 
सोने पर भी आते रहते 
सपने अनगिन लासानी ,
वंदनीया जननी सम 
जन्मभूमि दिव्यानी 
मेरे रग रग में बहती 
लहू बन त्रिपथगा तिरमुहानी
सुधाधार सम कल्याणी ,