न जाने कब बीत गए
सुधा भरे पीन घट से
सिंचित यौवन पल छिन ,
अधमुंदी अधखुली
पलकों के पीछे-पीछे
उठती गिरती अलकें अनुछिन ,
अधर रस टपकाती रही
नयनों को इधर - उधर
बस यों ही नचाती रही
प्रियजनों को बार - बार
संकेतों से सताती रही
रीते-सुभीते वे दिन ,
छोड़ चित्र अनगिन .सुधा भरे पीन घट से
सिंचित यौवन पल छिन ,
अधमुंदी अधखुली
पलकों के पीछे-पीछे
उठती गिरती अलकें अनुछिन ,
अधर रस टपकाती रही
नयनों को इधर - उधर
बस यों ही नचाती रही
प्रियजनों को बार - बार
संकेतों से सताती रही
प्रतिपल अनुदिन ...
अनायास ही शलभ सब
जल गए उसी आग में ,
मानो किंशुक रचित रंग से
रंगती रंगाती फाग में ...चाह करना तो चलाऊ
आह करना असभ्यता ,
गाती रही निजी राग में
नवयुग की भव्यता ,
सच को सच कहना
कहाँ की सभ्यता
घोर उद्दंडता असहनीय अभद्रता ....
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