Thursday, March 17, 2011

जन्मा हूँ  उसी तट पर 
खेला पला बढ़ा हूँ ,
उसके ही जल में  
गोते खाकर सीखा हूँ ,
उसके ही कूल पर 
बैठ-बैठ पढ़ा हूँ 
उसी का हूँ 
जैसा भी गढा अनगढ़ा हूँ ,
लहरों की थाप सुहानी 
टेढ़ी का अमृतमय पानी 
घरघर संगम के कारण 
बना घाट तिरमुहानी 
आसपास फूलते पलाश 
झुरमुट में फुदगती 
रूपसी सी गौरैया सयानी ,
अनगिनत दृश्य मन हरते
नयन मूंदने  पर भी 
पटल से नहीं  हटते 
पल - प्रतिपल करते 
अठखेलियाँ चतुर्दिक 
सोने पर भी आते रहते 
सपने अनगिन लासानी ,
वंदनीया जननी सम 
जन्मभूमि दिव्यानी 
मेरे रग रग में बहती 
लहू बन त्रिपथगा तिरमुहानी
सुधाधार सम कल्याणी ,

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता ...

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  2. आनंद आ गया... बहुत सुन्दर उदगार हैं... शब्द योजना और भाव दिल को छू गए...

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