जन्मा हूँ उसी तट पर
खेला पला बढ़ा हूँ ,
उसके ही जल में
गोते खाकर सीखा हूँ ,
उसके ही कूल पर
बैठ-बैठ पढ़ा हूँ
उसी का हूँ
जैसा भी गढा अनगढ़ा हूँ ,
लहरों की थाप सुहानी
टेढ़ी का अमृतमय पानी
घरघर संगम के कारण
बना घाट तिरमुहानी
आसपास फूलते पलाश
झुरमुट में फुदगती
रूपसी सी गौरैया सयानी ,
अनगिनत दृश्य मन हरते
नयन मूंदने पर भी
पटल से नहीं हटते
पल - प्रतिपल करते
अठखेलियाँ चतुर्दिक
सोने पर भी आते रहते
सपने अनगिन लासानी ,
वंदनीया जननी सम
जन्मभूमि दिव्यानी
मेरे रग रग में बहती
लहू बन त्रिपथगा तिरमुहानी
सुधाधार सम कल्याणी ,
स्वागत
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता ...
ReplyDeleteआनंद आ गया... बहुत सुन्दर उदगार हैं... शब्द योजना और भाव दिल को छू गए...
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